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Kiran's First Job: A Journey Empowering Her Rural Bihar Community

A woman named Kiran kneeling in front of a child. Blue walls, satellite dish in the background. Bright daylight, casual and focused atmosphere.
Kiran in the field

मैं किरन ZealGrit में फील्ड एसोसिएट के तौर पर काम कर रही हूं और हर दिन कुछ नया सीख रही हूं। मेरा काम Project 1000 Days के तहत गर्भवती माताओं, धात्री महिलाओं और छोटे बच्चों के साथ है। मैं उन्हें इस 1000 दिनों के अहम सफर में उनका कई तरीकों से साथ देती हूं, ताकि कुपोषण के चक्र को तोड़ा जा सके।


यह मेरी पहली नौकरी है। मैंने पहले कभी फील्ड पर काम नहीं किया था। मैं खुद सुपौल की रहने वाली हूं, लेकिन हमारे ही समाज में कितनी सारी परेशानियां हैं, ये पहले कभी न देखा था, न समझा था।


तो जाहिर है, जब मैंने इस काम की शुरुआत की, तो मुझे नहीं पता था कि मैं क्या कर पाऊंगी, और क्या नहीं। मैं सिर्फ़ इतना जानती थी कि मुझे कुछ करना है माताओं के लिए, बच्चों के लिए, अपने सुपौल के लिए। शुरुआती दिनों में ही एहसास हुआ कि बदलाव सिर्फ़ सोचने से नहीं, करने से आता है।


ऑफिस से मुझे अच्छी ट्रेनिंग मिली और फील्ड में भी बहुत सपोर्ट मिला। लेकिन शुरुआती 2–3 महीने तक हमेशा कोई न कोई मेरे साथ जाता था। फिर एक दिन किसी वजह से कोई भी साथ नहीं आ पाया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अकेले चली जाऊं। मुझे थोड़ा डर लग रहा था, लग रहा था की कोई मेरी बात समझ पाएगा या नहीं। लेकिन मैंने हिम्मत की और चली गई।

Children sit on mats in a bamboo grove, listening to three adults, one with a red shawl. A peaceful, educational outdoor setting.
Kiran at an anganbadi center

जब मैंने माताओं के साथ से बात की, और वे भी मुस्कुरा कर मुझसे बातें करने लगी तो सब कुछ ठीक से हो गया। मुझे बिल्कुल डर नहीं लगा। उस दिन के बाद मुझे यकीन हुआ कि मैं अकेले भी यह काम कर सकती हूं। धीरे-धीरे मैंने अकेले जाना शुरू किया। पहले लगता था कि ये बहुत मुश्किल होगा, लेकिन करने के बाद समझ आया कि हां, मैं कर सकती हूं। इसलिए कहते हैं, डर को काम से पहले नहीं आने देना चाहिए।


ज़्यादातर महिलायें अच्छे से बात करती थीं। लेकिन कभी-कभी एक-दो लोग ऐसे भी मिले जो बात नहीं करना चाहते थे। एक बार किसी ने कहा “फिर आ गई है बकर बकर करने!” तो उस वक्त मैं बहुत हताश हो गई थी। मुझे लगा मैं तो उनके सेहत की चिंता में मिलने जाती हूं, लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहतीं। इससे मेरा मनोबल थोड़ा गिर जाता था।


हमारे काम का हिस्सा है कि हम फील्ड से लौटकर ऑफिस में अपने अनुभव टीम के साथ साझा करते हैं। तब मेरी टीम ने मुझे समझाया कि हर किसी से अच्छी बातचीत नहीं हो सकती। कुछ ही अनुभव ऐसे होते है, बाक़ी तो ठीक से ही बातें होती हैं। फिर मैंने सोचा जैसे अपने परिवार में सबसे एक जैसे रिश्ते नहीं होते, वैसे ही कम्युनिटी में भी नहीं हो सकते।


अब अगर कोई माँ कुछ नहीं भी बोले, तो भी मैं 5 मिनट बैठकर बात करने की कोशिश करती हूं या दूसरे परिवारजनो से भी बातचीत करने की कोशिश करती हूँ।


कुछ आंगनबाड़ी सेविकाएं भी शुरू में बात नहीं करती थीं। लेकिन जब उन्होंने देखा कि हम CDPO ऑफिस के साथ काम कर रहे हैं, उनकी कोई शिकायत भी नहीं की गई है, कम्युनिटी में भी अपनी जगह बना रहे हैं, तब उनका व्यवहार बदलने लगा। अब वे अच्छे से बात करती हैं, और धीरे-धीरे भरोसा भी बनने लगा है।


मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा तब लगता है जब मैं बच्चों के साथ आंगनबाड़ी में खेल कराती हूं। बच्चों को भी बहुत मज़ा आता है। अगर किसी दिन मैं नहीं जाती, तो बच्चे पूछते हैं “मैडम आप रोज़ क्यों नहीं आती हैं?” यह सब देखकर मुझे लगता है कि मैं जो कर रही हूं, उससे माताओं और बच्चों को वाकई फायदा होने लगा है।


अब मैं एक-दो नहीं, बल्कि 5–6 माताओं के साथ सेशन ले लेती हूं। मेरी स्पीड और तरीके दोनों में सुधार आया है। जो

सफ़र डर और झिझक से शुरू हुआ, वो आज आत्मविश्वास में बदल गया है।

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